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Sunday, July 17, 2011

एक सुबह

धूप छत पर जब बिखरती है, हौले-हौले फिजा निखरती है;


भँवरे फूलों से बात करते हैं, पत्ते-पत्ते चमक दमकते है;
जब हवा झूमकर मचलती है, धूल उड़-उड़ गगन से मिलती है.....






दूर तक खिली-खिली धरती,
मानो दुल्हन नई-सी लगती है;
रेशमी रौशनी की चादर में,
लिपटी वो शबनमी सँवरती है... 

धूप छत पर जब बिखरती है.....





आसमां टकटकी लगाए है ,
होश अपना अभी गंवाए है;
आह उससे कभी निकलती है,
लाज से ये धरा सिमटती है.....

धूप छत पर जब बिखरती है....







शोख एक चुलबुली लाता के लिए,
         शाख बाँहे पसारे है;
मन्जरों की तलाश में खोई,
 कोकिला रात दिन गुजारे है...


रुत सुहानी-सी आज आई है,
आरजू सबकी यूँ हर्षाई है;
इस तरह ही उषा मुस्काती है,
 जिंदगी चलती चली जाती है...


                                                      धूप छत पर जब बिखरती है...



इसी रौशन सवेरे में,
चुपके-चुपके वो छत पे आती हैं;
डूबा दिल प्यार के अफसानों में,
शर्म से पर नजर चुराती हैं;


होंठ कहने से जो कतराते हैं,
आँखें वो दास्तां सुनाती है....


धूप छत पर जब बिखरती है,
हौले-हौले फिजा निखरती है.... 






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