भँवरे फूलों से बात करते हैं, पत्ते-पत्ते चमक दमकते है;
जब हवा झूमकर मचलती है, धूल उड़-उड़ गगन से मिलती है.....
दूर तक खिली-खिली धरती,
मानो दुल्हन नई-सी लगती है;
रेशमी रौशनी की चादर में,
लिपटी वो शबनमी सँवरती है...
धूप छत पर जब बिखरती है.....
होश अपना अभी गंवाए है;
आह उससे कभी निकलती है,
लाज से ये धरा सिमटती है.....
धूप छत पर जब बिखरती है....
शोख एक चुलबुली लाता के लिए,
शाख बाँहे पसारे है;
मन्जरों की तलाश में खोई,
कोकिला रात दिन गुजारे है...
रुत सुहानी-सी आज आई है,
आरजू सबकी यूँ हर्षाई है;
इस तरह ही उषा मुस्काती है,
जिंदगी चलती चली जाती है...
धूप छत पर जब बिखरती है...

इसी रौशन सवेरे में,
चुपके-चुपके वो छत पे आती हैं;
डूबा दिल प्यार के अफसानों में,
शर्म से पर नजर चुराती हैं;
होंठ कहने से जो कतराते हैं,
आँखें वो दास्तां सुनाती है....
धूप छत पर जब बिखरती है,
हौले-हौले फिजा निखरती है....