पलकोँ का ये शामियाना तेरा, बहुत खूब ये आशियाना तेरा... काजल की काली चटख ये घटा, रंग इनसे भरूँ जिंदगी मेँ सदा, बिजलियोँ सी चमक, रौशनी सी दमक, मैँ निखरता रहूँ देख तेरी अदा, इशारोँ मेँ सब कुछ बताना तेरा, छुपे राज़ दिल के जताना तेरा .... पलकोँ का ये शामियाना तेरा ... बयान नजरोँ ने झुककर किया हाल-ए-दिल, सिमट गया शर्म से फिर उठा चेहरा खिल, नजाकत ये फूलोँ को हैराँ करे, इबादत उमर मेरी तुमको लगे, अनोखी महक से बहकती फिजा, गाती पीहू-सी चहकती हवा, आरजू-जुस्तजू यूँ जगाना तेरा, तरन्नुम मेँ यूँ गुनगुनाना तेरा... पलकोँ का ये शामियाना तेरा...!!
इस आँगन में खेले हमने, जाने कितने खेल, धमाचौकड़ी, छुआ-छुई से चोर-सिपाही-रेल... सैर सुहानी, रुत मस्तानी; खूब चली वह नाव, अब याद आती झोंकों वाली, मीठी शीतल छाँव... कोरे कागज़ के पन्नों पर, गीत मधुर जीवन के, रचे गए सब यहीं उजाले, स्नेह-सुमन उपवन के... आशीषों की पुण्य धार में , भींग सींचे हैं सरसे, तार-तार, कण-कण मेरे, सौभाग्य-सजीले हरषे... वह स्वच्छंद उड़ान, होठों की मुस्कान,
दूर उस चौराहे पर भीकू ठेला लगाता था, याद है कुछ? जी हाँ, वही जो समोसे बनाता था; साथ में पकोड़े-जलेबियाँ भी तलता था, फुर्सत में हथेली पर खैनी मलता था.... दो रुपयों में एक समोसा, दस में पाव जलेबी.... बच्चों का वही एक भरोसा, बोली उसकी अलबेली... आलू-मटर नहीं बाबू वह, खुद को रोज उबालता; तपकर-खपकर पकवानों में, जीवन का रंग डालता.... दमे से दोस्ती पुरानी हो गई थी, बेटियाँ भी तो सयानी हो गईं थीं; खाँसता वह हांफता, चूरन-चबेने फांकता, दर्द सारा आप ही में ढाँपता.... तल गई उसकी जवानी, मानो बुढ़ापा ढल गया; हाय ! कैसी जिंदगानी, आग में जल-गल गया....
टूटी हुई एक झोपड़ी गुमनाम थी, दफ्तरी बाबुओं को अनजान थी; दाल-रोटी की जुगत में पिस गया, खिंचता रहा खुद, एक दिन वह घिस गया.... बबलू-डब्लू स्कूल नहीं जाते अब, बापू का ठेला वही चलाते अब... उनके बदन भी तेल के छाले सहने लगे हैं, लोग लावारिस उन्हें कहने लगे हैं.... दिल्लियाँ जाने कहाँ खोई हुई हैं, कान फोड़ो, घोटालों में सोई हुई हैं, दूध की भी लाज बाकी ना रही, सफेदपोशों, कालिख कभी जाती नही....!!