हम खेतों-से,खलिहानों से;
और हरे मैदानों से,
खट्टी-मीठी अमवारी से;
नीली-पीली फुलवारी से...
फिर उधर जरा चलें...
कभी लिपटे हम धूलों में,
और झुले कभी झूलों में;
लुके-छिपे उन खेलों में,
पले-पढ़े उन मेलों में..
संगों में रंग भरें...
और झुले कभी झूलों में;
लुके-छिपे उन खेलों में,
पले-पढ़े उन मेलों में..
संगों में रंग भरें...
हम लोरी के बोलों में,
और किस्सों अलबेलों में,
रसगुल्लों-बर्फी-केलों में,
चाट-पकोड़े-ठेलों में..
यादों के स्वाद चखें....
धारा से लड़ते हुए बढे,
बाधाएँ हरते हुए चले,
उन्मुक्त अनेक उड़ान भरे,
स्वछ्न्दों से तूफ़ान डरे....
अब वही उमंग भरें...
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