नई दिशा,डगर नई; जिंदगी कहाँ खड़ी;
दूर कितनी आ गई,कश्ती जो बचपन में चली...
कल की जैसे बात हो, साथियों के साथ वो;
धूल में कपड़े सने, एक-दूजे से भिड़े;
चीका-कंचे-गिल्ली-डंडा, मिलजुल हमनें थे खेले;
चटकीली-मीठी गोलियाँ, वो इमलियों की चोरियाँ,
बागों में मुफ्त दावतें, ढेरों नई शरारतें,
रखवालों से बगावतें, और बच निकलकर राहतें,
मेरी यादों में समा गई, उन लम्हों की हरेक कड़ी,
दूर कितनी आ गई.......
गुड्डे-गुड़ियों की शादियाँ, बारात की तैयारियाँ;
झूमकर वो नाचना, मिलके खुशियाँ बाँटना;
कभी बड़ों का डाँटना, माँ का सदा दुलारना;
दादी की प्यारी लोरियाँ,
माथे पे हलकी थपकियाँ;
छत पर डटे पतंग लिए, डोर उसको संग दिए;
उस रंग की चमक धुंधली पड़ी,
उमंग भी वो खो गई;
दूर कितनी आ गई....
कश्ती जो बचपन में चली...!!
दूर कितनी आ गई,कश्ती जो बचपन में चली...
कल की जैसे बात हो, साथियों के साथ वो;
धूल में कपड़े सने, एक-दूजे से भिड़े;
चीका-कंचे-गिल्ली-डंडा, मिलजुल हमनें थे खेले;
चटकीली-मीठी गोलियाँ, वो इमलियों की चोरियाँ,
बागों में मुफ्त दावतें, ढेरों नई शरारतें,
रखवालों से बगावतें, और बच निकलकर राहतें,
मेरी यादों में समा गई, उन लम्हों की हरेक कड़ी,
दूर कितनी आ गई.......
गुड्डे-गुड़ियों की शादियाँ, बारात की तैयारियाँ;
झूमकर वो नाचना, मिलके खुशियाँ बाँटना;
कभी बड़ों का डाँटना, माँ का सदा दुलारना;
दादी की प्यारी लोरियाँ,
माथे पे हलकी थपकियाँ;
परियों की कितनी कहानियाँ,
सपनों की वो सवारियाँ;
सपनों की वो सवारियाँ;
निंदिया मेरी कहाँ गई,
रोज जो मिलती रही,
दूर कितनी आ गई...
रोज जो मिलती रही,
दूर कितनी आ गई...
छत पर डटे पतंग लिए, डोर उसको संग दिए;
जैसे कोई तरंग लिए, उड़ चली वो उमंग दिए;
आ रही थी कटी पतंग, दौड़े सब पाने को मगन;
आ लगी वो मेरे अंग, हो गया सर्वस्व प्रसन्न;
आ रही थी कटी पतंग, दौड़े सब पाने को मगन;
आ लगी वो मेरे अंग, हो गया सर्वस्व प्रसन्न;
उस रंग की चमक धुंधली पड़ी,
उमंग भी वो खो गई;
दूर कितनी आ गई....
कश्ती जो बचपन में चली...!!
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