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Friday, October 14, 2011

प्रणय-सूत्र

दबे पाँव चुपके हवा पास आई,
लगा वो तुम्हारा संदेशा हो लाई;

झोली थी खाली, झलक कोई ना थी;            
न आहट, न खुशबू , खबर कोई ना थी....

  

जो पूछा पता, चाँद की चाँदनी से;
वो बोली ना जानूँ, मैं इस रौशनी को;

खिड़की के पल्ले, किए बंद तुमने
या शायद सखी को जलाया हो तुमने....








उषा क्या, निशा भी, तुम्हें ना बताए;
  उलझन हमारी सुलझ कैसे पाए;

   बादल तो रूठे, बारिश भी झूठी;
    पल-पल अगन बन, तन-मन
       जलाए....






कोई रास्ता हो जो तुमसे मिलाए,
 तो हँसकर बढ़ेंगे, झुकेंगी बाधाएँ;

तले अपने दाँतों के उंगली दबाए;
  दिशाएँ चकित, चूम लेंगी
       हवाएँ....







   ये बगिया महकती,
      "बहार" तुम जो आती; 
   
उमंगें चहकतीं,
        तुम्हें घेर गातीं;
   
 नयन प्यासे मिलते,
        प्रणय-पुष्प खिलते;
    कई दीप चाहत के
                                                                 मुस्काते-जलते....





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