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Sunday, May 22, 2011

मेरा शहर आरा

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आरा से है, लगाव पुराना,
  फिर भी मुझे, अलगाव निभाना;



भूल गया मैं, घर क्या होता,
  परदेस में जब, कभी ये मन रोता;

 

पगले को आस बंधाता हूँ,
ढाढस दे, चुप करवाता हूँ;


  उस नगरी में, तब आयेंगे, 
   जब पढ़-लिख, कुछ बन जायेंगें;
 

संकल्प ये दृढ़, विश्वास अटल, 

एक दिन अवश्य, हम होंगे सफल;





आशा है, राहें सजी मिलेंगी,
  स्वजनों की खुशियाँ छलकेंगी;



                     तब सबके गले मिलेंगे हम,
                      यादें ताज़ी कर लेंगे हम;





स्नेह-दीप तुम उस दिन तक,
 जलता हुआ ही रखना;
                     









  बाग यदि मुरझाएं भी,
 इक फूल खिलाए रखना..!
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Sunday, May 15, 2011

बाबा


"प्रस्तावना"
प्रस्तुत 'जीवन-चरित' यादों की फुलवारी से चुनकर एकत्रित पुष्पों से गूंथी हुई वह माला है जिसमें सच्चाई की ताजगी और उमंगों की खुशबू है. यह रचना उस आदर्शवादी, प्रखर, परोपकारी मानव को समर्पित है जो निःस्वार्थ सेवा के लिए निरंतर प्रतिबद्ध रहे. आज की पीढ़ी यदि इस गाथा से प्रेरित हो सके, तो मैं अपना प्रयास सार्थक समझूँगा.

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उपवन के उस माली के हर्ष का तब कोई ठिकाना नहीं होता, जब वह कोमल नवोदभिदों को बाग में प्रस्फुटित होते देखता है. वह अपनी कुशल देख-रेख में स्नेहपूर्वक उन्हें विकसित करता है. प्रकृति द्वारा भी नवागंतुकों का सदैव स्वागत होता है. चाहे वे पशु-पक्षी हो, जीव-जंतु, या फिर मानव -शिशु. वैसे मेरे आगमन का कुछ अभूतपूर्व स्वागत हुआ, क्योंकि मैं अपने परिवार में नई पीढ़ी का प्रथम प्रतिनिधि था. प्रथम कुछ अनोखा होता ही है. सबका प्यारा, दुलारा, चहेता और सबकी आँखों का तारा. मुझे माँ-पिताजी, बुआ, चाचा-चाची, दादी सबका खूब स्नेह मिला. पर बाबा का मुझसे लगाव ऐसा था जैस "ग्रीष्म की तपती दुपहरी में व्याकुल पथिक को छाया देते बरगद की लगन”. मूल से ज्यादा सूद के प्रति ममत्व व जुड़ाव की बात तो प्रचलित भी है.


अगर मुझे कुछ याद है, तो बस मेरी शैशवावस्था के वे सुनहरे दिन, जब रोजाना मेरी कोमल हथेली चमचमाते, सुनहले, दमकते सिक्कों का स्पर्श पाती और उनकी खनखनाहट का संगीत मुझे घंटों उलझाए रहता. सुबह-सुबह उन विशेष सिक्कों का उपहार देने वाले बाबा, शाम में कभी मूंगफली तो कभी बर्फी अथवा रसगुल्ले लाया करते. मेरे लिए हर दिन कुछ नया, कुछ अलग लाया जाता. पुनरावृति की एकरसता से भिन्न और खास. घर में प्रवेश करते ही वो सबसे पहले मुझे बुलाते और अपने पास पाकर कुरते की जेब से कागज़ का ठोंगा निकाल मेरी ओर बढ़ा देते. किसी प्रतीक्षारत चातक की भाँति, मैं आनंदपूर्वक वह ठोंगा झटपट खोलता. पल भर में ही मिठाइयों की उपस्थिति मेरी अँगुलियों के अतिरिक्त मुखमंडल पर भी अंकित हो जाती. भूमि पर भी कुछ टुकड़े बिखर जाते और मैं चिड़ियों-सा उन्हें चुन-चुन कर खाने लगता. मेरी इस मनोहारी बाल-छवि को बाबा अपलक निहारते और मुस्काने लगते.


माँ बताती हैं कि मैं पूरे दिन घर के बाहर ही खेला करता. जब कभी चाचा या बुआ बाहर निकलते तो मैं भी उनके पीछे लग जाता. मेरा आग्रह अटल होता, जिसे टालने का साहस किसी में न था. मिट्टी में मुझे अपनात्व मिला और यह संबंध लंबा चला. शाम में बाबा के घर लौटते ही मैं उन्हें अपनी विशिष्ट शैली व लुभावनी बोली में दिन भर की घटनाएँ सुनाता. सारे दिन क्या-क्या हुआ, कौन कहाँ गया; ये सारी ख़ुफ़िया ख़बरें मेरे सौजन्य से ही प्रसारित होतीं. यह प्रस्तुति उन्हें खूब भाती और विश्वसनीय भी लगती. मेरे 'जन्म' का बाबा की खुशियों में विशेष योगदान था. मैं अपनी बाल-सुलभ क्रीडाओं से उन्हें सदा प्रसन्न करता रहा और यही हमारे आगामी, दृढ़, अटूट रिश्ते का आधार बना.


दिन बीतते रहे और एक ऐसा दिन भी आया जब अपने पुत्रों की सार्थक शिक्षा के लिए पिताजी हमें (माँ और दोनों भाई) शहर में अपने अथक परिश्रम से निर्मित नए मकान में ले आये. अब मैं रोज़ाना अपने छोटे भाई के साथ स्कूल जाने लगा. वैसे तो शहर सुख-सुविधाओं से संपन्न था, पर यहाँ गाँव की-सी स्वच्छंदता न थी. अब न वैसी धमाचौकड़ी रही, ना ही वह उछलकूद और ना अपने प्रिय बाबा से प्रतिदिन का वह अनूठा संवाद. स्कूल में गाँव के ही एक चाचा, अध्यापक थे. बाबा उनसे नियमित रूप से हमारा समाचार लेते और कभी-कभार खाने-पीने की कुछ चीजें भी भिजवाते. अपनी व्यस्तताओं एवं घर-बाहर के अनेक दायित्वों के बावजूद बाबा हमसे मिलने महीने में एक बार शहर अवश्य आते.


"नील से रंगी स्वच्छ सफ़ेद धोती, क्रीम कलर का कुरता, जेब में पड़ी डॉट-पेन व कागज़ के कुछ टुकड़े, माथे पर अनुभव की बोधक लकीरें, आँखों पर लगा मोटे फ्रेम का चश्मा, प्रसन्न मुख-मुद्रा और पैरों में जूते". इस अद्भूत पोशाक में वे मुझे "अटल बिहारी वाजपेयी" से कम न लगते. दूर से ही आता देख मैं उन्हें पहचानकर दौडता हुआ बाहर निकल आता. पैर छूते ही वो मुझे अपनी हाथों के सहारे ऊपर उठा लेते. उनका रोम-रोम पुलकित हो उठता. उन सशक्त हाथों में स्वयं को सुरक्षित जान एवं उन्मुक्त मान, मैं फूला न समाता. फिर बातों की झड़ी लग जाती. मैं बिना रुके उनसे वह सब कुछ कहता जाता जो-जो मेरे बाल-मन ने इस प्रतीक्षित घड़ी के लिए सहेज कर रखा होता. बड़ी तन्मयता से सब कुछ सुनते हुए, वे मेरे भोलेपन पर मुग्ध होकर यदा-कदा ठहाके भी लगाते. वापस लौटते वक्त पहले तो वे स्वयं सिक्के खनकाकर और नोट दिखाकर हमें खूब ललचाते, फिर बाद में उन्हें हमारी हथेलियों पर रख देते. यह सब उन्हें आनंदित करता. इस दौरान "नो मनी फना फनी" की रट लगाकर सांकेतिक रूप से हमें आधुनिक युग में धन की महत्ता और उसके योग्यतम उपयोग का पाठ पढ़ा जाते. ऐसा नहीं था कि वे केवल घर के बच्चों को ही दुलारते हों. बल्कि उनकी परमार्थी और स्नेहमयी सूची में तो गाँव भर के बच्चों का नाम दर्ज रहता.


वार्षिक परीक्षाएं खत्म होने के बावजूद, होली दूर होने के कारण गाँव ना जा पाना, हमें बहुत अखरता. तभी किसी देवदूत की भांति हमें ले जाने, बाबा शहर आ धमकते. उमंग, उत्साह व उल्लास की उस स्वर्णिम घड़ी में हम, पिताजी की गाँव न जाने की सख्त हिदायत और बाद में पड़ने वाली डाँट के डर को भी अनदेखा कर देते. अब जब बाबा का आग्रह (या यूं कहें आदेश) हो तो माँ भला कैसे मना कर सकती थीं. बस हम जल्दी से अपने जरुरी कपड़े एक थैले में भर, बाबा के साथ उड़नछू हो जाते. हम रास्ते भर समोसों, जलेबियों, बर्फियों आदि का स्वाद लेते हुए झूमते चलते जाते. कहीं आइसक्रीम वाला दिखा तो रुके और ले ली अपनी मनपसंद फ्लेवर वाली आइसक्रीम. जब बाबा साथ होते, तो हमारी हर फ़रमाइश पूरी होती. हाँ वो अलग बात थी कि कुछ के लिए थोड़ी जिद भी करनी पड़ती. पैदल, तांगे व बस की सवारी करते हुए शाम तक हम गाँव पहुँच जाते. हमें इस तरह अचानक आया देख, दादी खुश होतीं. अपने सारे संगी-साथी दरवाजे पर जुट जाते. बिछड़े मीतों से मिलकर सुकून मिलता. खा-पीकर रात में हम बाबा के साथ दालान में सोते.


रोज बाबा की दिनचर्या एक-सी थी. सुबह उठकर वे टहलने निकलते और गाँव के सारे मंदिरों के दर्शन कर आते. लौटने पर बाहर के चबूतरे पर बैठकर दाँत साफ़ करते. उनके दाँत बनावटी थे, जिन्हें पहले वे साबुन से साफ़ करते, फिर मंजन लगाकर. कुल्ला करते हुए वे जोर-जोर से आवाजें निकालते, जिस पर हम खूब हँसते. बनावटी दाँतो को मुँह में फिट करते ही उनके कपोल भर जाते. सरसो-तेल से उन्हें विशेष प्रीति थी, सो हर मौसम में पूरे बदन पर इसकी मालिश करके ही स्नान करते. पूजा-पाठ के बाद बालों में खुशबूदार ठंडा तेल लगाते. यदि वे कभी हमारे बालों को रुखा या बिना तेल लगा पाते, तो डाँटने लगते. कारण बिलकुल स्पष्ट तथा वाजिब था. उनके जमाने में चूकि संपन्न घरों के लड़कों को ही तेल नसीब हो पाता था; अतः यह उनकी अवधारणा बन गई थी कि "बच्चों के तेल लगे बाल, परिवार की संपन्नता के द्योतक होते हैं". विधिवत भोजन करके वे दालान में आराम करते, या फिर अपने हमउम्रों कि मंडली में सम्मिलित होने निकल जाते. मैं भी पीछे हो लेता. सुबोध चाचा के दालान में चार-पाँच चौकियाँ लगी होतीं और यहीं बाबा के मित्रों अर्थात गाँव के बुजुर्गों की बैठक जमती. गाँव की ख़बरों से लेकर राजनीति, देश-दुनिया, खेल, मनोरंजन आदि तक हर विषय पर चर्चा होती. बाबा अपने समय में अर्जित कुछ खास उपलब्धियों का भी जिक्र करते. कभी-कभी तो भजन-कीर्तन भी होता. उस माहौल में बड़ा मजा आता. वहाँ बैठे घंटो बीत जाते, पर ऐसा लगता जैसे अभी-अभी तो आया हूँ. ज्ञान और अनुभव की एक सरिता बह निकलती जिसमें "जीवन-दर्शन" का निर्मल जल भरा होता.


बाबा के विचारों का सदैव सम्मान होता. गाँव में उनकी एक अलग पहचान थी. उनका जीवन संघर्षपूर्ण रहा था. अपनी कड़ी मेहनत, दृढ़ इच्छाशक्ति व सेवा-भाव के बल पर वे प्रतिष्ठित और विख्यात हुए थे. सरकारी-सेवा में मिली पदोन्नतियाँ इसकी साक्षी थीं. इस प्रतिस्पर्धात्मक, विषम आर्थिक युग में चार पुत्रों की विधिवत शिक्षा तथा तीन पुत्रियों की संपन्न व संभ्रांत घरों में शादी; कोई हँसीठिठोली की बात न थी. पर बाबा की मेहनत की जादुई छड़ी ने यह सब संभव कर दिया. कर्मठता के पारस-मणि ने सपनों की सुनहली कल्पना साकार की. अपना भविष्य संवारने की लालसा में घर के अन्य लोग धीरे-धीरे शहर की ओर पलायन करते गए. पर बाबा, पूर्वजों के विरासत उस "निकेतन" को संवारने में आजीवन लगे रहे. उन्होंने हर ढहती दीवार को सहारा दिया. हर कमजोर, जीर्ण, खिडकी-दरवाजे के संबल बने. शहर में उनका जी न लगता. कभी शहर आते भी, तो दो-चार दिन में ही गाँव लौटने का कोई ना कोई बहाना अवश्य ही खोज लेते. ग्रामीण परिवेश उनके संपूर्ण जीवन पर हावी रहा. विचारों में सादगी, सरल-सहज व्यवहार, नैतिक-मूल्यों व अनुशासन में निष्ठा एवं कर्तव्यपालन में सजगता, उनके व्यक्तित्व व कृतित्व की प्रमुख विशेषताएँ रहीं.

दूसरों की फिक्र उन्हें ज्यादा रहती. बसंत में अपने बागीचे में आम आने पर बाबा की चपलता देखते ही बनती. उनका यही प्रयास होता कि वे रसीले आम किसी भी तरह शहर के सभी संबंधियों, पोते-पोतियों व नाती-नातिनों तक शीघ्र पहुंचें. गाँव का एक ठेलेवाला, बाबा का विश्वसनीय था. वे उससे ही बड़ी-बड़ी टोकरियों में आम भरकर हम तक भिजवाते. बाद में यद्यपि ठेलेवाला कृतज्ञता व संकोचवश पैसे न लेना चाहता; फिर भी बाबा उसे उचित पारिश्रमिक देकर ही विदा करते. सबकी सेवा में वे असीम सुख पाते रहे और "सेवा-लाल" उपनाम से लोकप्रिय, प्रशंसित व पूज्ये बने. गाँव के धार्मिक मठ कि देखरेख हेतु गठित संचालन समिति के वे प्रमुख भी रहे. होली-दीवाली, छठ आदि पर्वों में जब सारा परिवार एकत्रित होता, तो बाबा का आनंद चरमसीमा पर होता. सम्पूर्ण आयोजन के प्रमुख होने का दायित्व वे कुशलतापूर्वक निभाते. उत्सव का प्रकाश सबके जीवन में खुशियों का संचार करे, ऐसी मनोभावना से वह आशीष देते.

यह उनकी प्रसन्नतापूर्वक जीवन जीने की कला ही थी, जो हृदय रोग की असह्य वेदना को किसी के समक्ष प्रकट न होने देती. वर्षों पूर्व बाईपास सर्जरी हुई थी और धीरे-धीरे बीमारी बढ़ने लगी. शायद सब इससे अनजान रहे, पर उन्हें अपने जीवन के चंद दिन शेष होने की सत्यता ज्ञात हो चुकी थी. अतः वे इन दिनों को भरपूर जीने में लगे रहे. मैट्रिक की परीक्षा देने औरंगाबाद जाने से पूर्व, मैं उनसे उस दिन आखिरी बार मिला. उन आँखों में वात्सल्य का संपूर्ण सागर भरा था, जिनसे कुछ बूंदों के रूप में अनमोल मोती छलक आए. विदा लेते वक्त उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखकर मानो ऐसी अपेक्षा-सी की, कि मैं उनकी ही तरह सफलता अर्जित कर अपना जीवन सार्थक बना सकूँ.


उधर मेरी परीक्षाएँ गुजरती रहीं और इधर एक दिन बाबा हम सबको छोड़कर ईश्वर के यहाँ चल दिए. उन्हें तबियत बिगड़ने पर दिल्ली ले जाया गया था, पर स्टेशन पर छोटे चाचाजी से मिलते ही जैसे वे अपनी समस्त इच्छाओं,  दायित्वों एवं कर्मबंधनों से मुक्त हो गए. इस धरती पर अब कुछ भी करने को शेष न बचा था. सो एक श्रमजीवी, तटस्थ , दूरदर्शी एवं मानवता का हितैषी कल्यानार्थी जीव अपने अगले सफर पर निकल पड़ा. काश मैं उस अद्भूत शरीरधारी से फिर कभी मिल सकूँ!

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प्रयुक्त शब्द / वाक्यांश :---

"नो मनी फना फनी"- जब पैसे न होंगें, तो परिवार में उछलकूद, अस्थिरता होगी.  अतः आधुनिक युग में धन आवश्यक है. 
ठोंगा - कागज़ से बना एक पात्र जिसमें पंसारी खाने की वस्तुएँ देता है.
चातक- एक धैर्यवान पक्षी जो केवल स्वाति नक्षत्र में ही वर्षा की बूंदों से अपनी प्यास बुझाता है.
दालान- गाँव के घरों में बाहर का कमरा जिसमें पुरुष या आगंतुक विश्राम करते हैं.
पारस-  एक ऐसा पत्थर जो धातु को सोने में तब्दील कर देता है.
वात्सल्य- स्नेह, प्रेम
निकेतन- घर, भवन, सदन
चपलता- चंचलता, तीव्रता, गति

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Saturday, May 7, 2011

आतंकवाद

                
                        
                        आतंक के साम्राज्य में, बेचारी मानवता रोती,
                          भार ऐसे कुकृत्यों का, कैसे वसुधा यह ढोती...


 भाई आपस में लड़ते हैं,
  लड़-लड़, कट-कट कर मरते हैं;
   गुल्शन में आग लगाते हैं,
     मूढ़ हैं, संसार जलाते हैं....


                
                    मानव को मानव समझें सब,
                  विधि की सर्वोत्तम रचना है;
                आतंकवाद इस लोक की सबसे,
                     करुण-दुखद-दुर्घटना है....





 प्रतिकार करें, आवेश क्षणिक ये,
   सुख-स्वप्नों को, भस्म करे;
    गहन-मनन-चिंतन हो तब,
     संगठित सभी प्रयत्न करें.....



       
         बंधुत्व-एकता-मंत्र प्रबल,
           मांग समय की भाई;
            समझो गर हम हुए सफल,
              धरती पर जन्नत पाई.....!!


Friday, May 6, 2011

बचपन

      नई दिशा,डगर नई; जिंदगी कहाँ खड़ी; 
  दूर कितनी आ गई,कश्ती जो बचपन में चली...

 कल की जैसे बात हो, साथियों के साथ वो;
 धूल में कपड़े सने, एक-दूजे से भिड़े;
चीका-कंचे-गिल्ली-डंडा, मिलजुल हमनें थे खेले;

चटकीली-मीठी गोलियाँ, वो इमलियों की चोरियाँ,
बागों में मुफ्त दावतें, ढेरों नई शरारतें,
रखवालों से बगावतें, और बच निकलकर राहतें,
 मेरी यादों में समा गई, उन लम्हों की हरेक कड़ी,
                              दूर कितनी आ गई.......




गुड्डे-गुड़ियों की शादियाँ, बारात की तैयारियाँ;
झूमकर वो नाचना, मिलके खुशियाँ बाँटना;
कभी बड़ों का डाँटना, माँ का सदा दुलारना;




दादी की प्यारी लोरियाँ, 
माथे पे हलकी थपकियाँ;
परियों की कितनी कहानियाँ,
सपनों की वो सवारियाँ;
निंदिया मेरी कहाँ गई, 
रोज जो मिलती रही,
         दूर कितनी आ गई...

 


छत पर डटे पतंग लिए, डोर उसको संग दिए;
जैसे कोई तरंग लिए, उड़ चली वो उमंग दिए;
आ रही थी कटी पतंग, दौड़े सब पाने को मगन;
आ लगी वो मेरे अंग, हो गया सर्वस्व प्रसन्न;

उस रंग की चमक धुंधली पड़ी,
उमंग भी वो खो गई;

       दूर कितनी आ गई....
          कश्ती जो बचपन में चली...!!                

नव वर्ष


आँखों में सपनों की प्यारी,
इक बारात सजाई है;
साल नए, तुम जल्दी आना,
पलकें कब से बिछाई हैं....

                    झोली में खुशियाँ भर लाना,
                    आशा की किरणें बिखराना;
                    जादुई पिचकारी लेकर,
                    जीवन में रंग बरसाना....

हर चेहरे पर मुस्कानों की,
रंगत नई सजा देना;
सबके होंठों पर अरमानों की,
धुन मीठी-सी ला देना...

                     कहो कभी मुश्किल में हूँ गर,
                     तब तुम साथ तो दोगे ना;
                     दुबे कश्ती मझधारों में जब,
                     पतवार मेरी थामोगे ना....

दृढ़ विश्वास हमारे हों,
धृति,परिश्रम सारे हों;
नव-गाथा के पृष्ठों पर,
अब हस्ताक्षर तुम्हारे हों....

                     ज्ञान-ज्योति प्रज्वलित रहे,
                     स्वर अपने मुखरित रहें;
                     संशय के भीषण वन में भी,
                     जिजीविषा जीवित रहे....

होली है


रंग की भाषा, रंग की बोली,
नाम इसी का होली है;
झूमे अबीर-गुलाल संग टोली,
प्रीत की पावन डोली है....

                फागुन की बरात रंगीली,
                  रुत मतवाली, बड़ी नशीली;
                     भोर किरण करती अठखेली,
                       दुल्हन-सी धरा, नई-नवेली....

मीठी कोयल की बोली,
 कहती कू-कू कर होली है...

रंग की भाषा, रंग की बोली,
 नाम इसी का होली है......


            पिचकारी से खुशियाँ बह निकलीं,
              हर दिल के दर तक जाएंगीं;
                मौका पाते ही चुपके से,
                  कोने में इक समाएँगी....

रंग रिश्तों का छूटे ना,
 पैगाम यही तो होली है....

झूमे अबीर-गुलाल संग टोली,
 प्रीत की पावन डोली है....

मिलन-वेला

उनसे मिलन की घडी सुहानी,
आ ही गई वो रूत मस्तानी;
बेताबी अपनी बढती जाए;
धडकन बनी दीवानी......

                         नयनों से ही बात बढ़ी है,
                         एक कड़ी दरम्याँ जुड़ी है;
                         राह नयी सौगात मिली है,
                         हम दोनों के लिए सजी है..

गीत प्रीत के पंछी गाएँ,
बनी तारों की जुबानी....

                          दूर अगन अब, प्रेम-मगन हम,
                          सरस-स्वप्न हुए साझे,
                          प्रेम-पुष्प सब, खिले नवल-दल;
                          प्यारे सारे ही हमारे..

हर तरंग में, हर सुगंध में,
बसी बस यही कहानी...


                          सघन गगन का छोर जहाँ है,
                          प्यार परे, उस ओर बढ़ा है;
                          बादल का जयघोष हमारा,
                          दूर-दूर तक फ़ैल गया है..

प्रेम-सुधा, वर्षा बरसाए,
छेड़, करे मनमानी....!!

भोर

                                                                                                                                                                        
आज धरा के पावन आँगन,
फिर से उषा मुस्काई है;

किरणों की सौगात से रौशन,
डाली-डाली लहराई है...
                                   
झूम गई अमवारी अपनी,
फुलवारी भी निखर गई;

     तितली रानी, कोकिला सयानी;
                  इतरा-इतरा शरमाई हैं
...                                 

                                                                               
निर्मल-नभ का नीला रंग है,   
और सुनहली धूप का संग है;  
सरिता के तन-मन को छूती,  
प्यारी पवन बड़ी भायी है...  









हृदयों में उल्लास जगा,
आशाओं का संचार हुआ;
दूर वो दुनिया पास बुलाती,
मन की मिटी तन्हाई है...!!



किरणों की सौगात से रौशन,
डाली-डाली लहराई है...

यादों के पल




  हम खेतों-से,खलिहानों से;
  और हरे मैदानों से,


  खट्टी-मीठी अमवारी से;
  नीली-पीली फुलवारी से...

फिर उधर जरा चलें...




       
कभी लिपटे हम धूलों में,
और झुले कभी झूलों में;


लुके-छिपे उन खेलों में,
पले-पढ़े उन मेलों में..

संगों में रंग भरें...





               हम लोरी के बोलों में,
          और किस्सों अलबेलों में,


          रसगुल्लों-बर्फी-केलों में,
           चाट-पकोड़े-ठेलों में..

            यादों के स्वाद चखें....
         


धारा से लड़ते हुए बढे,
बाधाएँ हरते हुए चले,


उन्मुक्त अनेक उड़ान भरे,
स्वछ्न्दों से तूफ़ान डरे....

अब वही उमंग भरें...



                                                          

आओ साथ चलें हम

आओ साथ चलें हम,
  आओ साथ चलें हम..
                                                      
 

                   विहगों-से चहके हम,
                  भंवरों-से बहके हम..
                  जीवन का हर इक पल,             
                 हंसकर बाँट चलें हम..

   आओ साथ चलें हम....                                                        

                                                                              



बादल-सा बरसे हम,  

हिरणों-से हर्षे हम;
बारिश के मोती सारे,
आज बटोर चलें हम..
                   
      आओ साथ चलें हम .....
                                        खुशबू-सा बिखरें हम,
                                        फूलों -सा निखरें हम..
                                        जीवन कि झोली में,        
                                        रंग-उमंग भरें हम...

                                     
                                   आओ साथ चलें हम ....  


                        नदिया-सा छलकें हम,
                        बूंदों-से छमके हम;
                        ऐसे बहते जाएँ,                         
                        बाधाएँ पार करें हम...

                      आओ साथ चलें हम ...
 

 
अम्बर-से अचल हम,                         
प्रस्तर-से अविचल हम;          
निर्भय हो बढ़ें ऐसे, 
जैसे उन्मुक्त चलें हम..            
                                  
आओ साथ चलें हम ....
                                          

                                            सूरज-सा चमकें हम,
 
                                            चन्दा-सा दमकें हम;
                                             अंधियारे मिट जाएँ,
                                              रौशन जग संग करें हम
..
                                              आओ साथ चलें हम ...   
 
यादों-से सच्चे हम;
वादों-से पक्कें हम,     

साथ कभी ना टूटे, 
वो बंधन बाँध चलें हम...
 

आओ साथ चलें हम
  आओ साथ चलें हम ...!!                                                       
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