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Thursday, May 5, 2011

"इंटरनेट"

"बिछड़े मीतोँ को पाने की,
"इंटरनेट" एक डोर, नवेली है;
स्वपनिल नभ पर छा जाने की,
प्यारी पतंग अलबेली है"....


कुछ तुम कह लो और कुछ सुन लो,
जो ठीक लगे उसको चुन लो;
चुनकर मन की झोली भर लो,
दिल की बोली को तर कर लो;
चहको-चमको, झनको-झमको ;
सरसो हरषो, वर्षोँ बरसो;
खुशबू, खुशियोँ की लाने की,
यह बेली और चमेली है...
बिछड़े मीतोँ को पाने की,
"इंटरनेट" एक डोर, नवेली है...

रुठो थोड़ा-सा और लड़ो,
झगड़ो थोड़ा-सा और अड़ो;
तब चुपके-से हौले-से,
'धप्पा' कहके चोरी-से मिलो,
हँसकर-गाकर दोनोँ ही खिलो;
अपनेपन का आभास तो दो,
मन को भी जरा एहसास तो हो;

दो पल साथ बिताने की,
यह रंग-रंगीली डोली है...
बिछड़े मीतोँ को पाने की,
"इंटरनेट" एक डोर, नवेली है... 

ये बातेँ ही रह जाएँगी,
ये यादेँ साथ निभाएँगी;
दूर सगोँ से होने पर,
ये राहेँ पास बुलाएँगी,

किलकी कलियाँ मुस्काएँगी;
बंधन अटूट अब अपना हो,
नैनोँ मेँ नया इक सपना हो;

चाहत से नज़र मिलाने की,
यह नई भाषा, नई बोली है;
बिछड़े मीतोँ को पाने की,
"इंटरनेट" एक डोर, नवेली है...!!!

2 comments:

Unknown said...

is prakar ke unchuae vishayon par bahut hi sundar abhayikiti hai yeh

ROHIT BHUSHAN said...

धन्यवाद विवेक जी ...

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