दूर उस चौराहे पर भीकू ठेला लगाता था,
याद है कुछ? जी हाँ, वही जो समोसे बनाता था;
साथ में पकोड़े-जलेबियाँ भी तलता था,
फुर्सत में हथेली पर खैनी मलता था....
दो रुपयों में एक समोसा,
दस में पाव जलेबी....
बच्चों का वही एक भरोसा,
बोली उसकी अलबेली...
आलू-मटर नहीं बाबू वह,
खुद को रोज उबालता;
तपकर-खपकर पकवानों में,
जीवन का रंग डालता....
दमे से दोस्ती पुरानी हो गई थी,
बेटियाँ भी तो सयानी हो गईं थीं;
खाँसता वह हांफता, चूरन-चबेने फांकता,
दर्द सारा आप ही में ढाँपता....
तल गई उसकी जवानी,
मानो बुढ़ापा ढल गया;
हाय ! कैसी जिंदगानी,
आग में जल-गल गया....
टूटी हुई एक झोपड़ी गुमनाम थी,
दफ्तरी बाबुओं को अनजान थी;
दाल-रोटी की जुगत में पिस गया,
खिंचता रहा खुद, एक दिन वह घिस गया....
बबलू-डब्लू स्कूल नहीं जाते अब,
बापू का ठेला वही चलाते अब...
उनके बदन भी तेल के छाले सहने लगे हैं,
लोग लावारिस उन्हें कहने लगे हैं....
दिल्लियाँ जाने कहाँ खोई हुई हैं,
कान फोड़ो, घोटालों में सोई हुई हैं,
दूध की भी लाज बाकी ना रही,
सफेदपोशों, कालिख कभी जाती नही....!!
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